इस आयत में दुनियावी जिंदगी यानी नसी ख्वाहिशात (क्रोध, माया, मान, लोभ जिन्हें जैन धर्म में कषाय कहा जाता है और ईसाई धर्म में मटेरियलिस्टिक डिजायर्स) को छोड़ने और आखिरत से रिश्ता जोड़ने की बात कही गई है। आखिरत से मुराद (आशय) दरअसल पारलौकिक यानी भविष्य की स्थिति से है। मतलब यह हुआ कि दुनियावी जिंदगी के बाद यानी मरणोपरांत की स्थिति ही आखिरत है।
यहां दो सवाल हैं। एक तो आखिरत से रिश्ता क्यों जोड़ें? दूसरा, आखिरत से रिश्ता कैसे जोड़ा जाए? जहां तक पहले सवाल का ताल्लुक है तो कुरआने-पाक की मजकूर (उपर्युक्त) सत्रहवीं आयत में इसका जवाब है। यह कि आखिरत (पारलौकिक स्थिति-मरणोपरांत भविष्य) से रिश्ता जोड़ें क्योंकि आखिरत बहुत बेहतर है (यानी परम श्रेष्ठ है) और पाइन्दातर है। (यानी अनंत शुभकारी-जयकारी है)।
अब दूसरे सवाल (आखिरत से रिश्ता कैसे जोड़ा जाए?) का जवाब रमजान का यह आखिरी अशरा खुद-ब-खुद है। चूंकि यह दोजख (नर्क) से निजात (मुक्ति) का अशरा (कालखंड) है। यानी निजात (मुक्ति) के लिए रम्ज करें। रमजान दरअसल श्रम्जश् से ही बना है। रम्ज के मानी हैं रुकना या कंट्रोल करना।
जब रोजादार अपनी नसी ख्वाहिशात पर रोक लगाकर (रम्ज करके) अल्लाह (ईश्वर) की शरई तरीके से इबादत करता है तो यह इबादत ही आखिरत के खाते की पूंजी है।
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