इस्लाम मजहब की इबादत की नींव एकेश्वरवाद (ला इलाहा इल्ललाह) पर मुश्तमिल (आधारित) है। हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के रसूल यानी संदेशवाहक (मोहम्मदुर्रसूलल्लाह) है। ये यकीन और तस्दीक यानी अल्लाह और उसके रसूल (संदेशवाहक) को स्वीकारना जरूरी है। इसको यों कह सकते हैं कि अल्लाह पर ईमान लाना और रसूलल्लाह के अहकामात मानना (ये अहकामात ही दरअसल अहकामे-शरीअत है) ही इस्लाम मजहब की बुनियाद है।
माहे रमजान को मजहबे-इस्लाम में खास मुकाम हासिल है। पाकीजगी (पवित्रता) और परहेजगारी की पाबंदी के साथ रखा गया रोजा रोजेदार को इबादत की अलग ही लज्जत देता है। दरअसल दोजख की आग से निजात का यह अशरा (जिसमें रात में की गई इबादत की खास अहमियत है) इक्कीसवीं रात (जब बीसवां रोजा इतार लिया जाता है) से ही शुरू हो जाता है। वैसे इस अशरे में जैसा कि पहले कहा जा चुका है दस रातें-दस दिन होते हैं, मगर उन्तीसवें रोजे वाली शाम को ही चांद नजर आ जाए तो नौ रातें-नौ दिन होते हैं।
इस अशरे में इक्कीसवीं रात जिसे ताक (विषम) रात कहते हैं नमाजी (आराधक) एतेकाफ (मस्जिद में रहकर विशेष आराधना) करता है। मोहल्ले में एक शख्स भी एतेकाफ करता है तो किफाया की वजह से पूरे मोहल्ले का हो जाता है। दरअसल अल्लाह को पुकारने का तरीका और आखिरत को सँवारने का सलीका है रमजान।
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