MP NEWS24-रमजान माह के तीस रोजे दरअसल तीन अक्षरों (कालखंड) पर मुश्तमिल (आधारित) हैं। शुरुआती दस दिनों यानी रोजों का अशरा रहमत का (कृपा का) बीच के दस रोजों का अशरा मगफिरत (मोक्ष) का और आखिरी दस रोजों का अशरा दोजख (नर्क) से निजात (छुटकारे) का है।रहमत का अशरा अल्लाह की सना (स्तुति) करते हुए रोजेदार के लिए उसकी (अल्लाह की) मेहरबानी मांगने का है। कुरआने-पाक की सूरह अन्नास्र की तीसरी आयत में जिक्र आया है ...तो अपने रब की सना (स्तुति) करते हुए उसकी पाकी (पवित्रता) बयान करो और उससे बख्शिष चाहो।
दरअसल शुरुआती दस रोजे यानी पहला अशरा, अल्लाह से रहमत हासिल करने का दौर है। दसवां रोजों अल्लाह की रहमत की रवानी और मेहरबानी के मील के पत्थर की मानिन्द है। हदीस (पैगंबर की अमली जिंदगी के दृष्टांत) की रोशनी में देखें तो तिर्मिजी-शरीफ (हदीस)में मोहम्मद सल्ल. ने फर्माया, लोगों! तुम अल्लाह से फजल तलब किया करो। अल्लाह तआला सवाल करने वालों को बहुत पसंद करता है।
इस हदीस के पसे-मंजर यह बात शुरुआती अशरे में अल्लाह से रहमत के लिए जब रोजेदार दुआ करता है तो दुआ कबूल होती है और रहमत बरसती है। क्योंकि हजरत मोहम्मद सल्ल. की यह भी हदीस है कि दुआ दरअसल इबादत का मगज है। कुल मिलाकर यह कि रोजा रहमत का शामियाना और बरकत का आशियाना है।
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