नागदा जं.--ईबादत का पवित्र महिना रमजान हुआ प्रारंभ, रविवार को रखा गया पहला रोजा रोशनी में जगमगाई जामा मस्जिद, शहर की सभी मस्जिदों में की गई आकर्षक विद्युत सज्जा,

MP NEWS24- माह-ए-रमजान मुस्लिम समुदाय के लिए बहुत ही पाक और महत्वपूर्ण माना गया है। इस वर्ष रमजान माह के चांद का दीदार शनिवार को हुआ तथा रविवार को पला रोजा रखा गया। चांद के दिखाई देते ही शनिवार रात्रि से विशेष नमाज (तरावीह) भी प्रारंभ हो गई है। ईशा की नमाज के बाद बडी संख्या में मस्जिदों में समाजजनों ने उपस्थित होकर तरावीह की नमाज अता की। तरावीह के दौरान पवित्र कुरआन की तिलावत भी की जाती है।

संयम और सब्र सिखाता है रोजा
इस्लाम धर्म में रोजा (सूरज निकलने के कुछ वक्त पहले से सूरज के अस्त होने तक कुछ भी नहीं खाना-पीना यानी निर्जल-निराहार रहना) बहुत अहमियत रखता है। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया के हर धर्म यानी मजहब में उपवास-रोजा प्रचलित है। मिसाल के तौर पर सनातन धर्म में नवरात्र के उपवास, जैन धर्म में पर्युषण पर्व के उपवास तथा ईसाई धर्म में फास्टिंग फेस्टिवल जिन्हें फास्टिंग डेज या हॉली फास्टिंग कहा जाता है। अजहर हाशमी साहब फरमाते हैं कि इस्लाम मजहब में रोजा, मजहब का सुतून (स्तंभ) भी है और रूह का सुकून भी। रोजा रखना हर मुसलमान पर फर्ज है। पवित्र कुरआन (अल बकरह रू 184) में अल्लाह का इरशाद (आदेश) है व अन तसूमू खयरुल्लकुम इन कुन्तुम तअलमून यानी और रोजा रखना तुम्हारे लिए ज्यादा भला है अगर तुम जानो। अल्लाह के इस कौल (कथन) में जो बात साफ तौर पर नजर आ रही है वे यही है कि रोजा भलाई का डाकिया है। अरबी जबान (भाषा) का सौम या स्याम लफ्ज ही दरअसल रोजा है। सौम या स्याम का संस्कृत-हिन्दी में मतलब होगा संयम। इस तरह अरबी जबान का सौम या स्याम ही हिन्दी-संस्कृत में संयम है। इस तरह रोजे का मतलब हुआ सौम या स्याम यानी श्संयम। यानी रोजा संयम और सब्र सिखाता है। रोजा खुद ही रखना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं होता तो अमीर और मालदार लोग धन खर्च करके किसी गरीब से रोजा रखवा लेते। वैज्ञानिक दृष्टि से रोजा स्वास्थ्य यानी सेहत के लिए मुनासिब है। मजहबी नजरिए से रोजा रूह की सफाई है। रूहानी नजरिए से रोजा ईमान की गहराई है। सामाजिक नजरिए से रोजा इंसान की अच्छाई है।
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दुसरा रोजा - रोजा ईमान की कसावट है
इबादत के पवित्र माह रमजान का आज दुसरा रोजा है। दुसरे रोजे को ईमान की कसावट कहा गया है। रोजा सदाकत (सच्चाई) की तरावट और दुनियावी ख्वाहिशों पर रुकावट है। दिल अल्लाह के जिक्र की ख्वाहिश कर रहा है तो रोजा इस ख्वाहिश को रवानी (गति) देता है और ईमान को नेकी की खाद और पाकीजगी का पानी देता है। लेकिन रोजा रखने पर दिल दुनिया की ख्वाहिश करता है तो रोजा इस पर रुकावट पैदा करता है। पवित्र रमजान में अल्लाह का फरमान है या अय्युहल्लजीना आमनु कुतेबा अलयकुमुस्स्याम यानी ऐ किताब (कुरआन पाक) के मानने वालों रोजा तुम पर फर्ज है। इसके माश्नी (मतलब) यह भी है कि किताब और रोजे को समझो। यानी कुरआन को समझ कर और सही पढ़ो (इसका मतलब यह है कि पवित्र कुरआन खुदा का यानी अल्लाह का कलाम है और उसको अदब और खुशूअ (समर्पण की भावना) के साथ पढ़ो। उसकी मनगढ़ंत या मनमानी व्याख्या मत करो। क्योंकि कुरआन इंसाफ की यानी अल्लाह की किताब है।
रोजे को समझना यानी रोजे से जुड़े एहतियात बरतना
रोजे को समझना सबसे बड़ी बात है। रोजे को समझना यानी रोजे से जुड़े एहतियात बरतना और गुस्से, लालच, हवस पर काबू रखना ही सच्चा रोजा है। सुबह सेहरी करके रोजा तो रख लिया मगर जबान से झूठ बोलते रहे, दिमाग से गलत सोचते रहे, हाथों से गलत काम करते रहे, पांवों से गलत जगह जाते रहे, आंखों से बुरा देखते रहे, जिस्म से गलत हरकतें करते रहे, जहन खुराफात में लगाते रहे तो ऐसा रोजा, रोजा न रहकर फाका (सिर्फ भूखा-प्यासा रहना) हो जाएगा। रोजा ख्वाहिशों पर काबू (इंद्रिय निग्रह) का नाम है। रोजा सब्र और संयम का पैगाम है। दूसरा रोजा शफाअत और इनाम है।

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