MP NEWS24- दुनिया के हर मजहब में अपने-अपने मजहबी तरीके से लोग उपवास (रोजा) रखते हैं। हर शख्स अपने-अपने मजहब की मान्यताओं के तहत उपवास के कायदे-कानून का पालन करता है। सब मजहबों ने उपवास (रोजा) का तशबीहात (उपमाओं) से जिक्र किया है। मिसाल के तौर पर जैन धर्म में पर्युषण पर्व के उपवास आत्मशुद्धि और कषाय-मुक्ति का पर्व है।सनातन धर्म के मानने वालों में नवरात्र के उपवास मातृशक्ति और भक्ति के प्रतीक हैं। यानी हर धर्म में उपवास को विशिष्ट दृष्टि से देखा गया है। इस नजरिए यानी जो जिस धर्म का मानने वाला है, उसको अपने धर्म के मुताबिक चलने और पालन करने में इस्लाम को कोई गुरेज नहीं है।
हकीकत तो यह है कि पवित्र कुरआन के तीसवें पारा (अध्याय-30) की सूरे-काफेरून की आखिरी आयत में जिक्र है लकुम दीनोकुम वले यदीन यानी तुम तुम्हारे दीन पर रहो मैं मेरे दीन पर रहूं। चूंकि इस्लाम मजहब एकेश्वरवाद (ला इलाहा इल्लल्लाह) को मानता है और हजरत मोहम्मद (स.अ.व.स.) को अल्लाह का रसूल (मोहम्मदुर्र रसूलल्लाह) स्वीकारता है, इसलिए रोजा मुसलमान पर फर्ज की शक्ल में तो है ही, अल्लाह की इबादत का एक तरीका भी है और सलीका भी।
तक्वा (पुण्य कर्म और साधनों की शुद्धता) तरीका है रोजा रखने का। सदाकत (सत्य-निष्ठा), सलीका है रोजे की पाकीजगी का। सब्र, सड़क है रोजदार की। कात (दान), पुल है रोजदार का। ऐसा पाकीजा रोजा रोजदार के लिए दुआ का दरख्त है।
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